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स्थितप्रज्ञ

जो व्यक्ति प्रत्यक्ष ज्ञान या प्रज्ञा में पूर्णतया स्थित है वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है ।

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥
भगवत गीता, अध्याय - २, श्लोका - ५४

अर्जुन कृष्ण से पूछते हैं कि परमात्मा में स्थित, स्थिर बुद्धिवाले मनुष्य के क्या लक्षण होते हैं ? वह स्थिर बुद्धिवाला मनुष्य कैसे बोलता है, कैसे बैठता है, और कैसे चलता है ?

प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥
भगवत गीता, अध्याय - २, श्लोका - ५५

कृष्ण बताते हैं कि जिस समय साधक मन से सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग कर देता है और अपने आपमें ही सन्तुष्ट रहता है, उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ।

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥
भगवत गीता, अध्याय - २, श्लोका - ५६

दुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता और सुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में अपार प्रसनत्ता नहीं होती; तथा जो राग, भय, और क्रोध से सर्वथा रहित हो गया है, वह मननशील मनुष्य स्थिरबुद्धि कहा जाता है ।

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
भगवत गीता, अध्याय - २, श्लोका - ६२~६३

लगातार किसी विषय का चिन्तन करने वाले मनुष्य की उस विषय में आसक्ति हो जाती है । आसक्ति से कामना पैदा होती है । कामना से क्रोध पैदा होता है । क्रोध होने पर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है । सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है । स्मृति भ्रष्ट होने पर बुद्धि का नाश हो जाता है । बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है ।

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति ॥
भगवत गीता, अध्याय - २, श्लोका - ७१

जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग करके आवेगहीन कार्य करता है और अहंकार रहित होकर आचरण करता है, वह शान्ति को प्राप्त करता है ।

सारांश

यह ध्यान देने योग्य है कि कृष्ण अर्जुन को इस संसार का त्याग करने के लिए नहीं कह रहे हैं । परन्तु वह अर्जुन को स्थिर बुद्धि प्राप्त करने का मार्ग दिखा रहें हैं, ताकि वह बिना परिणाम की चिंता किए अपना नियत कर्म कर सके ।