cKlear

नासदीय सूक्त

नासदीय सूक्त[1], ऋग्वेद के १० वें मंडल का १२९ वां भजन है । यह ब्रह्मांड विज्ञान और ब्रह्मांड की उत्पत्ति से संबंधित है । इसमें न सिर्फ बिग बैंग (हिरण्यगर्भः) के बाद का विवरण है, जो आधुनिक विज्ञान की खोजों के साथ आश्चर्यजनक समानताएं रखता है, बल्कि उससे पहले का भी विस्तार से चित्रण है, जिनकी आधुनिक विज्ञान अभी तक पूरी तरह से व्याख्या नहीं कर पाया है ।

नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् ।
किमावरीव: कुह कस्य शर्मन्नम्भ: किमासीद्गहनं गभीरम् ॥
ऋग्वेद, मंडल-१०, सूक्त-१२९(१)

प्रलय की दशा में न असत् था और न सत् था । उस समय न लोक थे और न अंतरिक्ष था. न कोई आवरण था और न ढकने योग्य पदार्थ था. कहीं भी न कोई प्राणी था और न कोई सुख पहुंचाने वाला भोग था । उस समय गहन गंभीर जल भी नहीं था ।

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः ।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माध्दान्यन्न परः किंचनास ॥
ऋग्वेद, मंडल-१०, सूक्त-१२९(२)

उस समय न मृत्यु थी और न अमृत था । न रात्रि थी और न दिन का ज्ञान था । उस समय एकमात्र ब्रह्मा ही स्वधा के साथ प्राणयुक्त था । उससे बढ़कर अन्य कुछ भी नहीं था ।

तम आसीत्तमसा गूळ्हमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वा इदम् |
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम् ॥
ऋग्वेद, मंडल-१०, सूक्त-१२९(३)

प्रलय दशा में सब कुछ अंधकार से घिरा हुआ था एवं सब ओर अंधकार था । यह सारा दृश्यमान जगत् जल के रूप में अज्ञात था. सारा विश्व तुच्छ अंधकार से ढका था । महान् तप से कारणकार्यरूप विभाग से रहित ब्रह्मा उत्पन्न हुआ ।

कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत् ।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥
ऋग्वेद, मंडल-१०, सूक्त-१२९(४)

परमेश्वर के मन में सबसे पहले सृष्टि रचना की इच्छा उत्पन्न हुई । वही सबसे पहले मन में सृष्टि का बीज बनी । विद्वानों ने बुद्धि से हदय में विचार किया एवं असत् में सत् के कारण को खोजा ।

तिरश्चीनो वितते रश्मिरेषामधः स्विदासी३दुपरि स्विदासी३त् ।
रेतोधा आसन्महिमान आस्न्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ॥
ऋग्वेद, मंडल-१०, सूक्त-१२९(५)

आकाश आदि की सृष्टि करने वाले परमात्मा के तेज की किरणें क्या तिरछी थीं, नीचे की ओर थीं अथवा ऊपर की ओर थीं? बीजरूप कर्म को धारण करने वाले जीव थे एवं महान् आकाश आदि भोग्य थे । उस समय अन्न निकृष्ट एवं भोक्ता उत्कृष्ट था ।

हिरण्यगर्भः

हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेकासीत ।
स दाधार पृथ्वीं ध्यामुतेमां कस्मै देवायहविषा विधेम ॥
ऋग्वेद, मंडल-१०, सूक्त-१२१(१)

हिरण्यगर्भः[2] की शुरुआत में, परमात्मा से सबसे पहले प्रजापति उत्पन्न हुए । वे उत्पन्न होते ही सब जगत् के स्वामी बने । जो सब सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों का आधार और जो यह जगत हुआ है और होगा, उसका एक अद्वतीय पति परमात्मा एक जगत की उत्पत्ति के पूर्व विद्यमान था और जिसने पृथ्वी से लेकर सूर्यापर्यंत जगत को उत्पन्न किया है ।

तदण्डमभवघ्दैमं सहस्त्रांशुसमप्रभम् ।
तस्मिञ्जज्ञे स्वयं ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः ॥
मनुस्मृति, अध्याय-१, श्लोक-९

फिर वह बीज हज़ारो सूर्यों की ज्योति के समान सुनेहरे अण्डे के रूप में परिणत हो गया । फिर उसमें सब लोगों के पितामह के समान ब्रह्मा अपने आप उत्पन्न हुए ।


संदर्भ

  1. Wikipedia, The Free Encyclopedia. Nasadiya Sukta. https://en.wikipedia.org/wiki/Nasadiya_Sukta
  2. Wikipedia, The Free Encyclopedia. Hiranyagarbha. https://en.wikipedia.org/wiki/Hiranyagarbha