पृष्ठभूमि
हमारी पांच इंद्रियां (दृष्टि, श्रवण, स्वाद, गंध, और स्पर्श) इस सृष्टि में जीवन के विकास के साथ विकसित हुई हैं । वे हमें इस भौतिक दुनिया (जिसमें हमारा मन, स्वांस, शरीर, और यह बाहरी दुनिया शामिल है) को समझने में हमारी सहायता करती हैं । ये इंद्रियाँ हमारे अस्तित्व के लिए एक साधन मात्र हैं और हमारे दैविक आयाम को समझने में सक्षम नहीं हैं । हमारा दैविक अंश (जिसमें हमारी बुद्धि, चित्त, अहंकार, और स्वयं हम शामिल हैं) हमारे अस्तिस्व का एक बहुत बड़ा हिस्सा है ।
शरीर
शरीर सामान्य अर्थों में किसी भी जीवधारी के समस्त अंग-प्रत्यंगों का समुच्चय है । शरीर, जिसको अन्नमय कोष भी कहते हैं, का निर्माण अन्न से होता है ।
जब हम जन्म लेते हैं तो हमारे शरीर का वजन २-३ किलो होता है, समय के साथ खाद्य सामग्री को ग्रहण करने से यह ६०-७०-८० किलो हो जाता है । यह स्पष्ट है कि जो हमने संग्रहित किया है वह हमारा हो सकता है, परन्तु हम नहीं हो सकता है ।
श्वास
श्वास, जिसे प्राणमय कोष भी कहते हैं, हमारे शरीर की संरचना में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है । ऑक्सीजन, जो प्राण का एक मूल अंश है, हमारे शरीर से लघबघ ८०% विषाक्त पदार्थों को निकालता है ।
हम जानते हैं कि हमारे शरीर के निर्माण खंड जैसे प्रोटीन, विटामिन, खनिज, आदि सभी हाइड्रोकार्बन श्रृंखलाएं हैं । हाइड्रोकार्बन दहन उस रासायनिक प्रतिक्रिया को कहते हैं जिसमें ऑक्सीजन की उपस्थिति में हाइड्रोकार्बन्स के बीच में प्रतिक्रिया होती है जिससे कार्बन डाइऑक्साइड, पानी, और ऊर्जा बनती है । जब तक पूर्ण दहन के लिए पर्याप्त ऑक्सीजन मौजूद है, तब तक बनने वाले दो उत्पाद कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) और पानी (H2O) होंगे । अपूर्ण दहन (जब ऑक्सीजन की अपर्याप्त आपूर्ति होती है) से कार्बन डाइऑक्साइड के बजाय विषाक्त कार्बन मोनोऑक्साइड (CO) उत्पन्न हो सकता है ।
मन
मन, जिसे मनोमय कोष भी कहते हैं, शरीर का वह हिस्सा या प्रक्रिया है जो किसी ज्ञातव्य को ग्रहण करने, सोचने, और समझने का कार्य करता है । यदि हम मन के विकास की बात करें, तो जब से जीवन विकसित हुआ है, हमने कर्मेन्द्रियों के माध्यम से क्रिया (कार्यवाही) की है और ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से परिणाम देखा है । यह मन (तंत्रिका नेटवर्क के रूप में) हमें अतीत से सीखने और वांछित परिणाम प्राप्त करने के लिए उचित कार्यवाही करने में सक्षम बनाता है ।
बुद्धि
मन की सीखने की एक सीमा होती है, वह उन्ही अनुभवों से सीख सकता है जहाँ वह परिणामों को किसी क्रिया से जोड़ सकता है । जब क्रिया और परिणाम के बीच अधिक समय का अंतराल होता है, तो मन ये नहीं जान पता कि किस क्रिया का क्या परिणाम हुआ । विकास के दौरान, जब मन ने उन क्रियाओं को प्रधानता देनी शुरू कर दी जिनसे तुरंत वांछित परिणाम मिलता था, चाहें उनके दीर्घकालिक प्रभाव कितने भी नकारात्मक हों, तो बुद्धि का विकास हुआ ।
बुद्धि, जिसे ज्ञानमय कोष भी कहते हैं, वह क्षमता है जो हमें बताती है कि लंबे समय में हमारे लिए क्या अच्छा है या क्या बुरा । उदाहरण के लिए, एक स्वादिष्ट, लेकिन अस्वास्थ्यकर, भोजन मन को बहुत अच्छा लगता है, लेकिन हम बुद्धि द्वारा उसके बुरे प्रभाव जान पाते है ।
चित्त
हम चित्त को स्मृति के रूप में समझ सकते हैं । चित्त सिर्फ हमारी जागरूक याद्दाश्त को ही नहीं कहते है, परन्तु हर वह स्मृति जो कर्म से उत्पन्न हुई है, जैसे हमारा DNA । एक वैदिक विचार के मतानुसार, यह संपूर्ण शरीर और कुछ भी नहीं बल्कि सिर्फ पिछले कर्मों की छाप ही है । दूसरे शब्दों में, संपूर्ण सृष्टि विशुद्ध रूप से सिर्फ परिणामों की स्मृति मात्र हैं ।
अहंकार
अहंकार को पहचान के रूप में देखा जा सकता है । अहंकार शब्द अहम् और कार की संधि से बना है । अहम् का अर्थ है मैं और कार का अर्थ है करता; यानी यह मानना कि मैं करता हूँ । अद्वैत वैदिक विचार के अनुसार हम ब्रह्मांडीय चेतना का हिस्सा हैं । अहंकार हमें सृष्टि से अलग करता है और द्वैत का आभास दिलाता है । द्वैत न सिर्फ कर्तापन का भाव जगाता है वरन ये श्रेष्ठता, हीनता, अपराधबोध, पीड़ित चेतना, इत्यादि भावों को भी जन्म देता है । जब अहंकार का विलय हो जाता है तो हम देख पाते हैं की संपूर्ण क्रियाएं तो इस सृष्टि के नियमानुसार स्वतः हो रहीं हैं, और हम उनके साक्षी हैं ।
आत्मा
आत्मा, जिसे आनंदमय कोष भी कहते हैं, भारतीय दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण विचार है । यह उपनिषदों के मूलभूत विषय-वस्तु के रूप में आता है । इसका अभिप्राय व्यक्ति में अन्तर्निहित उस मूलभूत सत् से है जो कि शाश्वत तत्त्व है तथा मृत्यु के पश्चात् भी जिसका विनाश नहीं होता । अपने इस स्वरूप को जाने बिना हम सृष्टि या परमेश्वर को सही मायने में नहीं जान सकते हैं । स्वयं को जाने बिना हमारे लिए ईश्वर केवल एक अवधारणा है, इस स्तिथि में हम ईश्वर को या तो मानते है या नहीं, परन्तु हम उसे जान नहीं पाते हैं ।