धर्म
वैदिक ज्ञान में धर्म सृष्टि की मौलिक प्रकृति को कहते हैं । इस सृष्टि के भौतिक पहलू का अध्ययन विस्तृत ज्ञान या विज्ञान कहलाता है और परब्रह्म को समझने को ज्ञान कहा जाता है ।
इस सृष्टि में प्रत्येक भौतिक इकाई की एक मौलिक प्रकृति (धर्म) है और उसमें कुछ गतिविधि (कर्म) है । भारतीय ऋषियों (वैज्ञानिकों) ने सृष्टि के अपने अध्ययन के आधार पर विभिन्न मंत्र (यानि सूत्र) परिभाषित किये, जिन पर आधारित तंत्र (यानि प्रौद्योगिकी), और फिर यंत्र (यानि उपकरण) तैयार किए ।
इसी तरह परब्रह्म के स्वरूम की समझ ने विभिन्न धर्मों को जन्म दिया, जैसे हिंदू धर्म, मुस्लिम धर्म, सिख धर्म, ईसाई धर्म, आदि । हम इन धर्मों को ही वास्तविक धर्म समझते हैं, जबकि ये अपने समय, स्थान, और भाषा के अनुसार इस प्रकृति के नियम (धर्म) की व्याख्या मात्र हैं ।
कर्म
कर्मा के तीन अंग हैं; भावना, सकाम क्रिया, और परिणाम । इस बात को दुसरे शब्दों में समझें तो सकाम भाव से की गइ शास्त्रविहित क्रिया कर्म कहलाती है । कर्म का परिणाम हमारी भावना और क्रिया दोनों पर निर्भर करता है । कर्म एक चक्र बनाता है; एक सकाम क्रिया का परिणाम दूसरी इच्छा को जन्म देता है, जो हमें अगली क्रिया करने के लिए प्रेरित करती है । यही बंधन है ।
जब हम एक नियत क्रिया के पश्चात, उसके फलों के बंधन से मुक्त, उस क्रिया के परिणामों के लिए रुके बिना, दूसरी नियत क्रिया की ओर अग्रसर हो जाते हैं, तो वह अकर्म कहलाता है । यही मुक्ति है ।
जब कामना बहुत तीव्र हो जाती है और हम बिना धर्म और अधर्म के विचार के बिना क्रिया करते हैं तो वह विकर्म कहलाती है । इस प्रकार की क्रिया हमारे एवं दूसरों के लिए दुखदाई होती है ।
भक्ति
किसी सांसारिक वास्तु पर विश्वास होना आस्था है और परब्रह्म पर विश्वास होना भक्ति है । अगर हम जागरूक और सचेतन हैं कि हमसे कहीं अधिक विशाल कोई चीज कार्य कर रही है तो हम स्वाभाविक रूप से भक्त हैं । इस अनजान तत्त्व के प्रति असीम प्रेम को भक्ति कहते हैं ।
जब भक्त हर चीज में भगवान को देखने लगता है तो वो देखता है कि वह ही भगवान है । अपने को भगवान स्वरूप देखना भक्ति की पराकाष्ठा है ।
ज्ञान
किसी विषय, वस्तु घटना आदि की संपूर्ण जानकारी होना उस वस्तु का ज्ञान कहलाता है । यानी जिसके बाद जानने को कुछ भी शेष ना रहे । ज्ञान शब्द का अर्थ ही होता है जानना या जान लेना ।
वह बौध्दिक अनुभव जो ज्ञानेंद्रियों द्वारा प्राप्त होता है, ज्ञान कहलाता है । इसके विपरीत किसी विषय को बिना पूर्णतया जाने उसके बारे में धारणा बना लेना मान्यता है, जो अज्ञानता है ।
सत्य
वह जो समय से अबाधित है और जिसका क्षय नहीं हो सकता है वही सत्य है । जो समय और स्थान के साथ परिवर्तित हो जाये वो असत्य है ।
बातचीत के संदर्भ में किसी घटना या प्रसंग के बारे में बात करना केवल तथ्य प्रस्तुत करना है । कभी कभी तथ्य बोलते हुए हमारे मन में एक डर पैदा होता है जो हमें रोकता है । जब भय रहते भी हम कोई तथ्य बोलते हैं तो वह सत्य कहलाता है ।