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योग शास्त्र

हमारे अस्तित्व के विभिन्न आयामों को गहराई से समझना और उन्हें समन्वित रूप से कार्यरत करना ही योग है । यह ज्ञान हमारे स्थूल शरीर से लेकर आत्मा तक के सभी आयामों को संगठित करता है । यह वैदिक ज्ञान अत्यंत पुरातन है ।

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥
भगवत गीता, अध्याय - ४, श्लोका - १

श्रीमद भागवत गीता में श्री कृष्ण कहते हैं कि मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य देव से कहा था, सूर्य से यह ज्ञान मनु को प्राप्त हुआ, और मनु से राजा इश्वाकु को ।

अगर इस ज्ञान के समय का आकलन करें तो राम का जन्म ५६७४ BCE में हुआ था । राजा इश्वाकु राम के पूर्वज थे, जिन्होंने अयोध्या में कौशल राज्य की स्थापना की थी । वैवस्वत मनु ११२०० BCE से पूर्व हुए थे । सूर्य देव उससे पहले हुए थे, जो महर्षि कश्यप के पुत्र थे ।

पृष्ठभूमि

विभिन्न संस्कृतियों में आत्मा को परमात्मा का अंश कहा गया है । जैसे ईसाई कहते हैं कि हम एक ही पिता की संतान हैं । मुस्लिम समुदाय कहता है कि अल्लाह ने हम को एक ही वजूद से बनाया है । हिन्दू इस एकल प्राणी को परमात्मा कहते हैं ।

वैदिक ज्ञान में योग की शुरुवात तत्वमसि (तुम ही मसीहा हो) से होती है और इसका अंत अहम् ब्रह्मास्मि (मैं ही ब्रह्म हूँ) पर होता है । बिना ये जाने कि तुम ही मसीहा हो, तुम्हारे लिए इस ज्ञान को पाना अत्यंत दुष्कर होगा । वैदिक ज्ञान में प्रयोग किए गए विभिन्न शब्दों का तात्पर्य जानना इस ज्ञान को समझने के लिए अति आवश्यक है ।

सांख्य योग

किसी प्रामाण पर आधारित विचार या युक्ति के द्वारा सत्य की खोज को सांख्य योग कहते हैं । दूसरे शब्दों में इसे तर्क शास्त्र भी कहा जा सकता है । वैदिक ज्ञान में तर्क शास्त्र को गहराई से समझा और विस्तार से दर्ज किया गया है । उदाहरण स्वरुप हमें दिखता है कि सूर्य हमारी पृथ्वी के चक्कर लगा रहा है, परन्तु हम तर्क से जानते हैं कि यह सत्य नहीं है ।

भागवत गीता के द्वितीय अध्याय में श्री कृष्णा अर्जुन को विस्तार से सांख्य योग के बारे में बताते हैं । श्री कृष्ण पुरुष की प्रकृति और उसके अंदर मौजूद तत्वों के बारे में समझाते हैं । उन्होनें अर्जुन को बताया कि मनुष्य को जब भी लगे कि उस पर दुख या विषाद हावी हो रहा है तो उसे सांख्य योग, यानी पुरुष प्रकृति का विश्लेषण करना चाहिए । ध्यान योग द्वारा मनुष्य खुद का मूल्यांकन करना सीखता है । इस योग को करना हर किसी के लिए अनिवार्य है । ध्यान योग मनुष्य को शांत और विचारशील बनता है ।

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥
भगवत गीता, अध्याय - २, श्लोका - ५३

श्री कृष्ण कहते हैं की विभिन्न वचनों को सुनने से विचलित हुई तुम्हारी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर हो जाएगी, तब तुम योग को प्राप्त हो जाओगे ।

कर्म योग

बुद्धि और तर्क की सीमा होती है । वह हमारे अस्तित्व के बहुत से आयामों को समझने में सक्षम नहीं है ।

एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु ।
बुद्ध्यायुक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥
भगवत गीता, अध्याय - २, श्लोका - ३९

श्री कृष्ण कहते हैं कि मैंने समबुद्धि को पाने का मार्ग पहले सांख्य योग द्वारा बताया, अब तुम इसको कर्म योग द्वारा सुनो । जिससे, समबुद्धि से युक्त हुए तुम, कर्म बन्धनों का त्याग कर सकोगे ।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥
भगवत गीता, अध्याय - २, श्लोका - ४७

श्री कृष्ण कहते हैं कि तुम्हारा कर्म पर अधिकार है, लेकिन तुम उनके फलो के अधिकारी नही हो । तुम न तो कर्म के फलों के प्रति आसक्त हो और न कर्म न करने के प्रति प्रेरित हो ।

इस जीवन में सबसे बड़ा योग कर्म योग है । कर्म योग के बंधन से देवताओं सहित कोई भी मुक्त नहीं है । कर्म करना मनुष्य का पहला धर्म है । मनुष्य को अपना कर्म करना चाहिए, बिना इस चिंता के कि उसके कर्म का फल उसको कब मिलेगा या क्या मिलेगा । जो कर्मों तथा उनके फलों से विरक्त हो गए हैं, वही ज्ञान योग के अधिकारी हैं ।

भक्ति योग

भक्ति योग ईश्वर प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ योग है । बिना इस योग के भगवान नहीं मिल सकते । जिस मनुष्य में भक्ति नहीं होती उसे भगवान कभी नहीं मिलते ।

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥
भगवत गीता, अध्याय - ११, श्लोका - ५५

जो अपने सभी नियत कर्मों को मुझे समर्पित करता है, मेरे मतानुसार वह मेरा भक्त आसक्तिरहित है और सम्पूर्ण प्राणियों में वैरभाव से रहित है । वह मुझको ही प्राप्त होता है ।

ज्ञान योग

ईश्वरीय स्वरूप के वास्तविक सत्य को जानना ही ज्ञान योग का लक्ष्य है । श्री कृष्ण के अनुसार ज्ञान अमृत समान होता है । इसे जो पी लेता है उसे कभी कोई बंधन नहीं बांध सकता । ज्ञान मनुष्य को कर्म बंधनों में रहकर भी भौतिक संसर्ग से विमुक्त रखता है ।

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा ॥
भगवत गीता, अध्याय - ७, श्लोका - ६

यह समस्त दृश्य जगत् परमात्मा से ही उत्पन्न होता है और अन्त में परमात्मा में ही लीन हो जाता है । अर्थात् प्रकृति की उत्पत्ति और उद्भव एवं प्रलय का मूल कारण परमात्मा ही है ।

वैदिक ज्ञान में इस प्रकृति को ही परमेश्वर माना है ।